विभव ने हाई स्कूल पास किया था अभी. कुछ महीनों पहले ही तो उसके रिजल्ट आये थे. इतने अच्छे मार्क्स लाने की वजह से पापा ने खुश हो के उसे आईफोन गिफ्ट किया था. सबकुछ तो ठीक था, पर अब क्या होता जा रहा है इस लड़के को? अब कुछ कहो तो उसे अनसुना कर देता है. इसने तो अब घर पर लोगों से बात करना भी बंद कर दिया है. जैसे-जैसे ये बच्चे बड़े होते हैं पता नहीं क्या होने लगता है इन्हें! अब तो हम मां-बाप भी यूज़लेस लगने लगे हैं इन्हें.
ये सिर्फ एक विभव की कहानी नहीं है। ऐसे कितने ही घरों में ऐसी बातें आम हो चली हैं। कई जगह तो समस्या इतनी बढ़ जाती है की बच्चों के लिए काउंसलिंग, साइकोलॉजिकल और psychatric एक्सपर्ट की मदद ज़रूरी हो जाती है.
नेहा की ही लीजिए। उसकी मां परेशान है की बेटी बात ही नहीं सुनती. अभी सिर्फ १४ साल की है और इतना मूड स्विंग होता है उसका. किसी भी बात पर चीखती चिल्लाती है. कभी रोने लगती है. हमेशा घर में तनाव का माहौल रहता है. कुछ भी कहो तो उल्टा ज़वाब देती है और सिर्फ अपने मन की करती है। जबकि उसे समझ नहीं है की क्या करना सही है और क्या गलत? वहीं बारहवीं के छात्र प्रतीक के घरवाले तो और भी परेशान हैं कि वो तो आत्महत्या कर लेने की धमकी दे चुका है.
ये तीनों ही मामले सतही तौर पर अलग से लगते हैं, पर इन तीनों में समानता है.
आखिर क्यों और कहां से आया यह संवेदना का अभाव, आक्रोश और हताशा भी. ऐसी घटनाएं आज के बच्चों की तरफ से क्या संदेश दे रही हैं? क्या आज के बच्चे इतने असंवेदनशील और संस्कारहीन या आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि उनके लिए अपने अलावा किसी से कोई जुडाव नहीं महसूस होता? इस मनोवृत्ति के क्या कारण हैं? आज कमोबेश हर घर में आम हो चली किशोर बच्चों की मनोवृत्ति की ऐसी समस्याओं के लिए क्या बच्चे ही दोषी हैं? उत्तर आता है, “नहीं”!
तो कहां तक ज़िम्मेदार हैं माता-पिता और क्या भूमिका है आज की शिक्षा पद्धति की? आज की यह भौतिकतावादी और भागदौड़ भरी जिंदगी बच्चों को किस मंजिल पर पहुंचा रही है? आज के बच्चों से अभिभावक बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। जिसके कारण उन पर मानसिक दबाव बहुत बढ़ गया है। समाज की तथाकथित कसौटियों, तुलनाओं पर खरा न उतर पाने के कारण उनमें हीनभावना भर जाती है। बच्चों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए? उनकी भावनाओं को कैसे समझें? यह पहले बड़ों को समझना होगा. हमारी शिक्षा से दर्शन, आध्यात्म गायब हो चुका है जो हमारी बहुत-सी ऐसी समस्याओं का समाधान है। आज शिक्षा अगर छात्रों को कुछ दे सकती है तो उसे विवेक देना चाहिए। उसमें अच्छे-बुरे की पहचान करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। अध्यापकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण देना चाहिए. उन्हें बाल-मनोविज्ञान से परिचित कराना चाहिए।
आज के भौतिकतावादी युग में हम बच्चों को सार्थक समय नहीं दे पाते। उस आवश्यकता को पैसों से या भौतिक वस्तुओं से पूरा करने का प्रयास करते हैं। यह एक गलत प्रवृत्ति है। वर्तमान में सर्वसुलभ मीडिया में बाल-सुलभ गतिविधियों के लिए कोई सुनिश्चित जगह नहीं है। मीडिया में बढ़ती नकारात्मकता और भौतिकतावाद को संयमित करने की बहुत आवश्यकता है। आजकल गैजेट्स का प्रयोग की आवश्यकता को नाकारा नहीं जा सकता है, लेकिन बच्चे विवेक और भावना के स्तर पर परिपक्व नहीं होते हैं. इसलिए उनमें यह समझ विकसित करना परिवार की ज़िम्मेदारी है. वर्तमान में हम खुद ही समाज और राष्ट्र की अवधारणा से अलग थलग हुए जा रहे हैं, ऐसे में बच्चे को किसी भी तरह की नैतिकता की शिक्षा कहां से मिल सकेगी? बच्चों को यह सिखाया जाता है कि मां-बाप उनके आदर्श हैं। किन्तु उनमें भी अनेक कमियां होती हैं। जब बच्चा उनकी कथनी-करनी में अंतर देखता है तो वह पूरी तरह भ्रमित हो जाता है।
माता-पिता के साथ बिताए गए समय की पूर्ति किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। अभिभावकों से मिलने वाले संस्कार, शिक्षा कहीं और से नहीं मिल सकती। हाल ही में 0-14 साल के बच्चों पर हुई एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि जो माता-पिता अपने बच्चों से बात कर के, प्यार और विश्वास के भाव से, मिलजुल कर बच्चों के लिए कोई निर्णय लेते हैं, उनके बच्चे अधिक स्वस्थ और एक्टिव होते हैं. इसके विपरीत जहां माता-पिता अपनी सलाह बच्चों पर थोपते हैं, उनके बच्चे काफी अकेलापन महसूस करते हैं. और नतीजा यह होता है की बच्चा चिड़चिड़ा, सुस्त, निराश और कई तरह की समस्याओं का शिकार हो जाता है. इसलिए बच्चों की संतुलित परवरिश बेहद ज़रूरी है. अधिकतर माता-पिता इस बात को ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं. बच्चा या तो ज़रुरत से अधिक केयर पाता है या उपेक्षित महसूस करता है. घर के माहौल से बच्चों की सेहत और मनोवृत्ति को आकार मिलता है.
बच्चों की ये आत्मकेंद्रित रोषपूर्ण वृत्ति मेरी समझ से पूरी व्यवस्था के विरुद्ध है। उसके अंदर असीम ऊर्जा भरी हुई है. किन्तु उस ऊर्जा का प्रयोग मात्र सफलता के लिए करने का दबाव बचपन से ही उस पर हावी होता है. और वर्तमान में सफलता पूरी तरह से व्यावसायिक हो चुकी है. सफलता कहीं भी मूल्यपरक न होकर मात्र आर्थिक और भौतिक मान ली गयी है. ऐसे में किशोरावस्था तक आते-आते बच्चों के लिए समाज, राष्ट्र के साथ-साथ अब परिवार से भी दूरी बना लेना कई बार सफलता का रास्ता समझ में आता है. ऐसे में जहां तक मनोवैज्ञानिक सलाह की बात है तो उसकी आवश्यकता केवल बच्चों को ही नहीं, माता-पिता और अध्यापकों को भी है।
यदि हमारे सारे हेतु सिर्फ व्यावसायिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रह गए हैं, तो जब बच्चे माता-पिता को अशक्त होने पर घर से और जीवन से निकाल देते हैं तो उसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए? नैतिकता, देश, समाज और मानवता हित हमारे उद्देश्यों में सम्मिलित नहीं. इसके लिए पूरी व्यवस्था में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
-लेखिका- डॉ अभिलाषा द्विवेदी